Tuesday, April 14, 2020

ढाई आखर(अक्षर)...और लेखक की चिंता

इंसान जज्बाती है...और यही ज़ज़्बात उसे इंसान बनाये रखा है. जज्बात के हटते ही इंसान निरा मशीन के अलावा कुछ भी नही। जज्बात जो दिल की बात करे उसे हम प्रेम...प्यार... इश्क़...मुहब्बत....में से कोई भी नाम दे देते है अक्सर.
प्रेम...इस ढाई आखर ने विश्व को समेट रखा है। इंसान इसके बगैर जी नही सकता फिर भी लोग एक खास उम्र में जान बूझकर इससे बैर पाल लेते है...
कई बार लेखक सोचता है....कि बिना उस तथाकथित आधुनिक इश्क़ के गर्त में जाये बगैर इसके बारे में कुछ लिख सकता हूँ या फिर इस विषय पर कोई भूक्तभोगी ही राय रख सकता है।हालांकि, लेखक ने आज लिख डालने का ठाना है....चाहे जो भी हो।

बकौल लेखक ...प्रेम....आज़ादी देती है जीने की...लेकिन ये क्या प्रेम के ढाई आखर में लोग बन्दी बनते क्यों नज़र आ रहे मुझे....प्रेम तो सारा आकाश सामने रख देता है न...फिर क्यों?

प्रेम....प्रेम ज़िन्दगी तो देता ही है... कम से कम उन दो हंसो को जो इस ढाई आखर में बंध गए हैं..लेकिन नही यहाँ तो पंखे के सहारे चुन्नी में शिरा बांधे इश्कबाज़ लटक रहे हैं...प्रेम इतना वीभत्स भी हो सकता है?

प्रेम....प्रेम सम्मान तो गढ़ता ही होगा प्रेमी के मध्य,...लेकिन ये क्या यहां तो प्रेमी अपमान की बौछार कर और सह रहा है।क्या प्रेम में इतनी कोमलता भी नही की कोई बिना अहंकार पाले झुक भी सके???
नहीं... प्रेम इतना भयावह नही हो सकता ।

प्रेम...प्रेम द्वंद्व तो जरूर खत्म कर देता होगा....लेकिन ये क्या प्रेमी बिछड़न के बाद एक नए युग का स्वागत भी नही कर सकता....बस इसलिए कि वो भूत और भविष्य के द्वंद्व में फसा है?...क्या प्रेम इतना कमजोर होता है?

प्रेम हिम्मत देता है...ये तो है....पर ये कैसी  हिम्मत की भूत और भविष्य के जाल में फसकर एक प्रेमी दूसरे प्रेमी से प्रेम का आह्वान तक नही कर पा रहा...प्रेम इतना कमजोर है?

लेखक इतना सोचते सोचते जैसे ही आगे बढ़ता है...मानो आकाशवाणी से कुछ आवाज उसके मन के दीवारों को थर्राते हुए कहती है कि प्रेम इतना बुरा नही मूर्ख....मनुष्य ने अपनी आकांक्षाओं के बोझ और परमन को न समझ पाने की दुर्बलता के आघात से प्रेम को बदनाम कर रखा है...और बची खुची इज्जत समाज ने नीलाम कर दिया है... अपने पूर्वाग्रह के हाथों।
प्रेम के ढाई आखर ने इज्जत भी बख्शी है....हिम्मत भी... और आज़ादी भी....प्रेम में सुलझाने की ताकत भी है...और समझाने ...समझ पाने की भी।
पर मनुष्य तो मदमस्त है....उसे अपनी चलानी है... हक की हुकूमत करनी है... मर्दानगी का धौंस दिखाना है...तो किसी को हुस्न और मादकता के तले मनोवैज्ञानिक दर्द परोसना है... और इसका सुख भोगना...
किसी को स्टड बनना है तो किसी को इमोशनली स्ट्रांग लड़की कहलाना पसंद है।
परमन को इच्छा को तलाशना और संभालना तो सीखा ही नही कभी इसने....जिसने इज्जत दी उसकी इज्जत कभी नही की गई इससे...जिसने दर्द दिया वो उसी की यादों में मशगूल है।

लेखक विचलित है...कलम रखने के अलावा वो क्या करे....उसे खुद समझ नही आ रहा।
सद्बुद्धि....ये तो बस मानव ने किताबों-ग्रंथो भर में लिख छोड़ा है।

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