चल चुका हूं.. बढ़ चुका हूँ... अपने घर से अपने घर की तरफ। पलायन ज़िन्दगी है मेरी। कभी इस ओर तो कभी उस ओर। अजीब है, दोनों अपना ही है। इस देश का ही है। फिर भी कुछ अपना नहीं, क्योंकि मेरे हाथ मैले हैं। दिहाड़ी मजदूर हूँ। सफेद कमीज घर आते-आते काली हो जाती है।
मेरी अपनी कोई पहचान नहीं। मैं मालिक का हूँ, जब तक मजबूत हूँ तब तक। जब तक मेरा श्रम उनके मसनद को थामे रखता है तब तक। जब तक मेरा सामीप्य उनकी तिजोरियां भरता है तब तक।
सुना है एक विपदा आई है..कोई बीमारी छाई है..मुझे लगता था कि मेरा कष्ट ही सबसे छोटा है, पर इस बीमारी का कारक उससे भी छोटा है। ये इतना भयावह है तो हमारी एकता की चिंगारी कितनी भयावह होगी? न, न...ये सही नहीं...क्रांति की बू आ रही इससे...डर है कि कुछ दिक्कतों सहित पर घर बैठा मध्यम वर्ग कहीं गुस्से में न आ जाए इसे सुनकर।
खैर....
मालिक ने कहा है पगार नहीं मिलेगी। लॉकडाउन है। मशीन बंद है। ये बात तो है...लेकिन साहब के घर से मांस और पनीर की भी खुशबू आ रही है। खैर, ये पैसा उनका है। हमने थोड़े ही दिया है। मेरे श्रम से थोड़े ही कमाया है उन्होंने जो मुझे जीने जैसी स्थिति भी बख्शें। ऐसे में घर जाना ही मुनासिब है।
ये अलग बात है कि मैं और हमारे साथियों ने कुछ दिन पहले मालिक के फायदे के लिए ओवरटाइम किया था क्योंकि मालिक परेशान थे। टारगेट पूरा करना था। दुर्भाग्य देखिए आज खुद टारगेट बन गया और सड़क पर हूँ।
सोच रहा हूँ, क्या सोच कर आया था? बच्चो को अफसर बनाऊंगा! घरवाली को भी खुश रखूंगा! लेकिन अब वापस जाना होगा खाली हाथ। भूखे पेट। वहीं, जहाँ से मेरी कहानी शुरू हुई थी...अपने गांव!
किसी ने कहा सरकार कर रही है कुछ...सरकार तो कभी अपनी थी ही नहीं...वो क्या ही करेगी?
हम मजदूरों के वोट भले ही संख्या में ज्यादा हों पर इससे ज्यादा नहीं डरती सरकार। मेरे वोट में शायद मेरे मालिक के वोट वाली ताकत नहीं!
जिस राज्य में रह-खा रहा था बरसों से, इस बीमारी के चलते वहां भी पराया हो चुका हूं। वो भी अपने राज्य जाने कह रहा। डर ये भी है कि अपने राज्य के लोग कहीं ये ना कहें कि वहां मिट्टी ढोता है और यहां बीमारी ढो कर लाया है, सो अब न घर का हूँ न घाट का।
कह रहा था बीवी से कि मत आओ शहर, पर उसकी भी ज़िद थी बड़ा शहर..अच्छा शहर।
कैसे बताऊँ उसे बड़े शहरों के छोटे दिल के बारे में? कैसे बताऊँ उसे इन अच्छे शहरों के बुरे वक्त के बारे में?
समाज चाहे तो अपनी विफलता छिपाकर हमारे पैदल हज़ारों मील जाने को एक कारनामा मान उस पर गर्व कर सकता है। मेडल भेज सकता है। मैं भी क्या कर सकता हूं, ज़िन्दगी जोखिम है मान लिया है...और अपने भाग्य को कोस दिया है!
(लॉकडाउन के दौरान 'आरोहण' के एक कार्यक्रम के लिए लिखी गया एक लेख)
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