Wednesday, December 26, 2018

आदिवासी समाज और शिक्षा


                     
 बात धुमकुड़िया-2018 के छाँव तले हो रही है, इसलिए मैं धुमकुड़िया के जिक्र के साथ अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। धुमकुड़िया एक पारंपरिक जनजातीय शिक्षा का केन्द्र रहा है। इसका पुनरुत्थान आधुनिक नज़रिये से आदिवासी समाज के सर्वोत्तम हित में है।
धुमकुड़िया महज एक शिक्षा का केंद्र ही नही है बल्कि आदिवासी समाज की संस्कृति और सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रहा है,इसलिए ऐसी पद्धति का संरक्षण इस संक्रमण काल मे अनिवार्य हो जाता है।अतः इस आयोजन के लिए मैं तमाम आयोजकों को हृदय से धन्यवाद करता हूं।

*पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा में सामंजस्य -
                           पारंपरिक शिक्षा किसी भी भारतीय समाज के लिए जरूरी है क्योंकि ये हमें हमारे आस्तित्व के बारे में बताती है । हमारी सभ्यता से हमारा परिचय करवाती है । हालांकि मैं यहाँ यह भी जोड़ना चाहूंगा कि पारंपरिक शिक्षा कई बार अंधविश्वास और दमन को अपने आगोश में समेटे रहती है। इसलिए ये बेहद जरूरी है कि हम पारंपरिक शिक्षा को तर्क और न्याय के मानक पर तौलें और फिर स्वीकार करें।
 आदिवासी परंपरा सामाजिक बराबरी और प्रकृति के इर्द-गिर्द घूमती है (जो कि मुख्य धारा की परंपरा से अलग है ) इस सामाजिक बराबरी और प्रकृति आधारित पारंपरिक शिक्षा आदिवासी कल्याण का जरिया बन सकती है।

 *आधुनिक शिक्षा का महत्व*-

 मैं फिलहाल खुद आधुनिक शिक्षा का हिस्सा हूँ और इसलिये इसके महत्व को भी स्वीकार करता हूँ। आधुनिक शिक्षा हमें अपने संवैधानिक अधिकारों से तो परिचय कराती ही है , साथ ही वो जरूरी जागरूकता भी मुहैया कराती है जिससे हम अपने मौजूदा हित-अहित के संदर्भ में वाजिब फैसले ले पाते है।वास्तव में शिक्षा हमें गलत को गलत और सही को सही कहने की ताकत देती है।
        कोई 'मांझी गनी' या  बलभद्र बिरवा आपके सामने खड़े होकर अपने सामाजिक उद्धार और हित की बात इसलिए कर पा रहें है क्योंकि ये आधुनिक शिक्षा के संपर्क में आए हैं । इसलिए हमें आधुनिक शिक्षा को लेकर कट्टर पुर्वाग्रही रुख अपनाने से बचना चाहिए और इसकी जगह आधुनिक शिक्षा के सकारात्मक पहलूओं पर विचार करना चाहिए ।
अगर मेरी माने तो हमे एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है जिसमे धुमकुड़िया जैसे पारंपरिक शिक्षा संस्थान में आधुनिक - ज्ञान- विज्ञान वैज्ञानिक सोच का आदर्श मिश्रण हों, व शायद तब ही हम आदिवासी समाज के लोग अपने जड़ो से भी जुड़े रहेंगे और अपने हक की बात भी कर सकेंगे।

*आदिवासियों का हालिया सामाजिक परिवर्तन*-

             आधुनिक शिक्षा के अंधाधुंध प्रसार और पारंपरिक शिक्षा को लेकर नकारात्मक नजरिया आदिवासी समाज के एक नए अभिजात वर्ग को जन्म दे रहा है।
           मैं खुद एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय का हिस्सा हूँ और ऐसे स्वघोषित अभिजात वर्ग से अक्सर
रु-ब-रु होता रहता हूँ।
 ये वर्ग संपत्ति और शिक्षा के बल पर खुद को मुख्यधारा के हिस्सा मानता है । जबकि इसके उलट मैं कहता हूं कि ये मुख्यधारा नही बल्कि 'मुख्य भीड़' के हिस्सा हो रहे है क्योंकि  कभी भी अपनी धारा से कट कर खुद को मुख्य धारा का हिस्सा बताना सरासर पाखंड है।
 ये वर्ग इतना अभिमानी और स्व केंद्रित हो गया है कि उनके पास  आदिवासी समाज के उत्थान के लिए पल भर सोचने का वक़्त भी नही है।इतना ही नही , वे गांवों में बसने वाले आदिवासियों को हेय दृष्टि से देखते है।
 इसके कारणों पर अगर विचार किया जाए तो ये साफ होता है कि जरूरी पारंपरिक शिक्षा और मूल्यों के ह्रास ने ही ऐसे वर्ग को जन्म दिया है । इसलिए मैं पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा के आदर्श मिश्रण की बात करता हूं । यही हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक विकास को सुनिश्चित कर सकता है।
 मिशनरियों की अगर बात करें तो  इसने आदिवासी इलाकों में शिक्षण संस्थान तो खोले लेकिन इसकी आड़ में धर्म-परिवर्तन के जरिये आदिवासी संस्कृति पर गहरा आघात किया है, इसलिए  समय आ गया है कि आदिवासी समाज द्वारा इन पर नजर रखा जाए ।
 शिक्षा के स्वरूप पर अगर बात करें तो प्राथमिक शिक्षा आदिवासी समाज की मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए । ये बच्चो को तीव्र गति से सीखने में मदद करती है और परिणाम स्वरूप बच्चें उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित होते हैं । ऐसी बाते सविंधान के अनुछेद  350 A में भी समाहित है।

 *राजनीति और आदिवासी शिक्षा*-

अकादमिक तौर पर मैं राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी हूं और अगर शिक्षा के राजनीतिक पहलुओं पर बात नही करूँगा तो मेरा विषय बुरा मान जायेगा ।
ये एक कड़वा सच है कि जयपाल सिंह मुंडा एवं कार्तिक उरांव के बाद आदिवासी समाज को कोई भी ऐसा सशक्त नेता नही हुआ जो आदिवासियों के सर्वांगीन विकास की बात करता हो ।
राजनीतिक ,सामाजिक और जागरूकता के अभाव में हमारे नेता हमें बरगलाते रहे हैं।
शिक्षा का बजट पूरे देश में आज भी काफी कम है। राजनीति की धर्म ,जात, और क्षेत्र जैसे कारकों के बीच शिक्षा कहीं खो जाती है।
एक शिक्षित और जागरूक आदिवासी समाज ही एक अच्छा नेता चुन सकता है जो भावी पीढ़ी के लिए अच्छी शिक्षा सुनिश्चित कर सकता है । इस सैद्धांतिक संबंध की वजह से शिक्षा का महत्व कही ज्यादा बढ़ जाता है।।

इसमें कोई दो राय नही है कि हम और आप 'मांसाहारी शेरों'द्वारा शासित साम्राज्य में रह रहे हैं और दुर्भाग्यवश 'हिरण' का इतिहास शेरों द्वारा कभी नही लिखा जा सकता जब तक कि हिरण अपना खुद का इतिहास न लिख रहा हो। अब वक्त आ गया है....हिरण को अपना इतिहास लिखना ही होगा और ये बस शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही संभव है ।
        जय धुमकुड़िया ,जय उरांव
                      जय हिंद ।
 
आदिवासी समाज के कार्यक्रम धुमकुड़िया-2018 के लिए सहपाठी अजय उराँव के साथ मिलकर लिखा गया भाषण का लिखित रूपांतरण।

The Politics behind RAM MANDIR and its various facets.

                                                                                                                                    India ...